फागुन का स्वेटर



विनय विक्रम सिंह

चार पहर ने लड़ियाँ

गूँथीं, फागुन ने स्वेटर पहना।


समय साँझ चौताल 

सुनाए, भरे अँगोछे गुड़ भेली।

मृदुल हवा हर-तन को

चूमे, चौरे ने कुसुली बेली।

कलियों ने दो चोटी 

खोलीं, वेणी बाँध बनी ललना।

चार पहर ने लड़ियाँ

गूँथीं, फागुन ने स्वेटर पहना।१।


कोहबर खुद को रँगे

अबीरी, करधन अपनी चमकाती।

चूल्हे के आगे की 

परथन, तपी आग से शरमाती।

चोली में चिट्ठी 

परदेसी, उसको ही कहती छलना।

चार पहर ने लड़ियाँ

गूँथीं, फागुन ने स्वेटर पहना।२।


चौपालों में हुक्के 

गाते, गेहूँ की पीली पकुसन।

घूँघट ढाँप रहा अल्हड़ता, 

जो महुआरी करे पवन।

फाग मँजीरे से उलझी

है, पहने झाँझर का गहना।

चार पहर ने लड़ियाँ

गूँथीं, फागुन ने स्वेटर पहना।३।


सुख की फसलें रोप

रही हैं, खलिहानों में कटहाई।

मीठी धूप पहनकर

पियरी, दिखा रही है तरुणाई।

डेढ़ ताल सुन पायल

बहके, ड्योढ़ी तुम सँभली रहना।

चार पहर ने लड़ियाँ

गूँथीं, फागुन ने स्वेटर पहना।४।

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