एक पीड़िता की निःशब्दता

..आखिरी सांस पर..?

हेमन्त कुशवाहा

तुम्हारी वासना की भूख ने
मेरा बचपन, मेरी आजादी, मेरा भरोसा, मेरी शिक्षा व मेरा नारीत्व, मेरी अस्मिता यानि मेरी पूरी काया को एक पल में डस लिया, 
आखिर क्या जुर्म था मेरा'  मैं एक नारी ही तो थी शायद यही जुर्म था बस मेरा'  जिसके सुनहरे लहराते बाल, गुलाबी होंठ व  देह पर उभरे हुए वक्ष' दो चमकती आंखें'  
निःसंदेह ये चीजें तो तुम अपनी माँ-बहनों, चाची-ताई, बुआ-भतीजी व दादी-नानी के भीतर भी देख चुके होंगे 
फिर क्यूं नहीं बहके तुम्हारे हाथ मुझसे जबरदस्ती करते हुए'  क्या तुम्हें बिल्कुल भी शर्म नहीं आयी ये घिनौनी हरकत करते हुए' शायद मैं तनहा और सुनसान जगह पर अकेली थी और तुम्हारे साथ में 4-5 और भेड़िये  थे'
काश! अगर एक क्षण भी तुमने ये महसूस कर लिया होता कि यह भी किसी की बहन होगी, ये भी किसी की लाड़ली बिटिया होगी जो एक दिन किसी की संगिनी बनेगी जिसके अपने सपने होंगे'
मगर तुमने ऐसा बिल्कुल भी नहीं सोचा' और तुमसे काफी जद्दोजहद करने व तुम्हारे आगे पूरी तरह असफल हो जाने के बाद आखिर में मैंने खुद ही तुमको सौंप दिया, चूंकि मेरे पास वहां कोई दूसरा रास्ता नहीं था मैं उस वक़्त पूरी तरह से घबराई हुई थी और मेरा तन तुम्हारे भय से कांप रहा था  मेरी ताकत पूरी तरह से खत्म हो चुकी थी 
एक पल ऐसा लगा कि तुम सब अपनी तृप्ति के बाद मुझे जिंदा छोड़ दोगे जो मेरी सोच में था लेकिन तुम्हारी सोच में ये बिल्कुल नहीं था' 
आखिर तुमने वो ही सब किया जो आज तक होता आया है तुमने मेरे जिंदा शरीर के एक-एक अंग को बड़ी बेरहमी से धारदार हथियारों से काटकर पूरी तरह से छिन्न-भिन्न करके मेरी वो दुर्दशा की जिससे मैं खुद को ना पहचान सकी और ईश्वर ने ये सब देखकर मुझे उसी क्षण अपने पास बुला लिया' 
मैं जानना चाहती हूँ क्या यही पौरुष है तुम्हारा, थूकती हूँ ऐसी पौरुषता पर' जो नारी का सम्मान ना कर सके धिक्कार है ऐसी जिंदगी का जो किसी नारी  की दुर्दशा करके खुद को बहुत ताकतवर समझता हो मेरा खयाल है कि तुम जैसे पिशाच लोग एक पारिवारिक व सांस्कारिक स्त्री के खून की अपेक्षा यकीनन एक वेश्यावृत्ति करने वाली स्त्री व दोगले गंदे खून की पैदाइश होते हैं जिनको अपने असल बाप का पता तक नहीं होता है।

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