लुगदी की पीएचडी

व्याकरण   

विनय विक्रम सिंह 'मनकही'  

आज अचानक ही आँखों में आँसू आ जाते हैं, मेरे कन्धे पर सिर भरकर सुबक जाते हैं, और रूँधे गले से कहते हैं, "मैंने माफ़ कर दिया दो बेटा।" उनका चेहरा आंसुओं से तरबतर था, ग्लानि की तपिश से वे आंसू, बाहर धूलकते ही भाप बन रहे थे। 

माहौल स्टीमबाथरूम जैसा वाष्पीकृत हो उठा था। क्षमा मांगते हुए अत्यंत विगलित भाव से, उन्होंने लोगी साहित्य का गट्ठर मेरे सम्मुख रख दिया। 

"ख़ूब पढ़ो बेटा, कहो करो, नाम रोशन करो।" ऐसा देशात्म, आत्म-समर्पण की मुद्रा में उन्होंने अपना सर्पास्त्र (चमड़े की बेल्ट) भी मेरे सम्मुख डाल दिया। 

जो बार-बार मुझे, इसी लुगदी साहित्य के जीर्ण होने पर, मेरी उच्छृंखल साहित्यमयी देह पर, माँ से हल्दी-चूना लगने का कारण बनता था। हालाँकि वे झटका देते हैं, मेरे दिग्भ्रमित घोड़े के रूप में मन को विशुद्ध साहित्य चरने के लिए प्रेरित करने के लिए होते हैं, मेरे नश्वर शरीर के बीच में आते हैं, इसे नील वर्णी सूजन के रूप में शुभभाव से ग्रहण कर लेते थे । 

दर्द के संसार को कांग्रेस की सहनशीलता को भी लुगदी साहित्य ही सम्बल देता है। मानसिक दर्द तो पुनश्च लुगदी उपन्यास के प्रथम पृष्ठ को झूठ ही छूमंतर हो जाती थी। केमिस्ट्री और जूलॉजी के मायने, मुझे फिर से घर का ऐसा बेहतर कोना मिलने को विवश कर देंगे। 

जहां घरवाले कदम उठाने में सुकुचाते थे, वहीं से मैं घर वालों को पीसीएस या हर किसी की पढ़ाई-लिखाई करता नजर आता था।दूर के ढोल सुहाने होते हैं, यह कहावत तब सिद्ध हो जाती थी, जब कभी-कभी शिकायत करने वाला मेरी अनुपस्थिति में, जब एक सफाई पसंद करता है राजनीतिक पार्टी का चुनाव चिह्न, उस सुदूर कोने से, भ्रष्टाचार की फाइल खोज लेता था, उस दिन मुझे घर लौटाने पर, चौके से पाकी हल्दी और चूने की गन्ध आ रही थी, बाकी बजमबजाई के कार्यवाहियों को विस्तार से की आवश्यकता नहीं थी, उससे ज्यादा ढोल तो मोहल्ले के चींटियों कानाफूसी में पीटती थीं। मुझे फिर से घर का ऐसा सुदूर कोना जाने को विवश कर दें। जहां घर वाले कदम धरने में सुकुचाते थे, वहां से मैं घर वालों को पीसीएस या हर किसी की पढ़ाई करता नजर आता था।

दूर के ढोल सुहाने होते हैं, यह कहावत तब सिद्ध हो जाती थी, जब कभी-कभी शिकायत करने वाला मेरी अनुपस्थिति में, जब एक सफाई पसंद करता है राजनीतिक पार्टी का चुनाव चिह्न, उस सुदूर कोने से, भ्रष्टाचार की फाइल खोज लेता था, उस दिन मुझे घर लौटाने पर, चौके से पाकी हल्दी और चूने की गन्ध आ रही थी, बाकी बजमबजाई के कार्यवाहियों को विस्तार से की आवश्यकता नहीं थी, उससे ज्यादा ढोल तो मोहल्ले के चींटियों कानाफूसी में पीटती थीं। मुझे फिर से घर का ऐसा सुदूर कोना जाने को विवश कर दें। जहां घर वाले कदम धरने में सुकुचाते थे, वहां से मैं घर वालों को पीसीएस या हर किसी की पढ़ाई करता नजर आता था।

दूर के ढोल सुहाने होते हैं, यह कहावत तब सिद्ध हो जाती थी, जब कभी-कभी शिकायत करने वाला मेरी अनुपस्थिति में, जब एक सफाई पसंद करता है राजनीतिक पार्टी का चुनाव चिह्न, उस सुदूर कोने से, भ्रष्टाचार की फाइल खोज लेता था, उस दिन मुझे घर लौटाने पर, चौके से पाकी हल्दी और चूने की गन्ध आ रही थी, बाकी बजमबजाई के कार्यवाहियों को विस्तार से की आवश्यकता नहीं थी, उससे ज्यादा ढोल तो मोहल्ले के चींटियों कानाफूसी में पीटती थीं। 

 उपस्कर की बेल्ट (सरपास्त्र) को सम्मुख लुंज-पुंज पड़ा देखा, मैं हतप्रभ था। यह मध्यमवर्गीय सभ्यता और अटकल का ऐसा फंदा था, जो कमर पर बंधेते ही उनकी कड़ी में अहं ब्रह्मास्मि का भाव भरती थी, और हाथ में आने पर, विश्व के दृष्टिकोण पर वायसदार का ब्रह्माण्डीय पथ प्रयोक्ता के रूप में सामने ले जाता था।  

यह बेल्ट बेल्ट की जीवनी शक्ति थी, इसके कमर में जितनी सामाजिक प्रतिष्ठा थी, और उनके हाथों में उतनी ही कानूनी थी। लेकिन यह उनके लिए आत्मसमर्पण करने के लिए ऐसा ही था, जैसे उनकी रीढ़ की हड्डी दान कर दे। एक हाथ से अपनी सरकती पंत संभालते, आज वो अनायास व अकसमात हो गए वृद्ध से लग रहे थे, लग रहा था जैसे किसी सूम के दांतों में दबी दमड़ी खींच ली हो गई।उनकी हालत ऐसी थी, जैसे कि शिशुपाल ने सौवीं गलती कर दी हो, और प्रभु श्रीकृष्ण का सुदर्शन चक्र उन्हें ले गए हो या विश्व कानून रूपी ट्रैफिक हवलदार की, इस बीच कार्यक्षेत्र नीचे खिसका दी गई हो बरबस ही अंगुलिमाल याद आ गया, वो संदिग्ध हृदय परिवर्तन के बाद ऐसा ही दिख रहा होगा। उसके चारों ओर भी ऐसी ही, ज्ञानमयी दिव्य आभा फेल होगी। 

अच्छा हो लुगदी टाइट का, इसका चस्का मसेन भीगते ही, येन-केन प्रकार अपना रास्ता पकड़ लेता है। स्टेशन के आस-पास या कॉलेज के आस-पास किराना स्टोर जैसे छद्म दुकानों में उचित पात्रता रखने वालों को आसानी से जानकारी रहती है। इसकी सहज सुलभता ऐसी है कि जैसे किसी जाति ने शोक क्वांट कर दिया और उदर मां ने एज निप्पल को अपने मुंह में डाल लिया। ऐसा वितरण नेटवर्क शायद ही किसी और उत्पाद का हो। बस इतना है कि जैसे माँ स्तनपान करती है, नवजात को अपने आँचल में छुपा लेती है कि, किसी की नज़र न लगे, उसी प्रकार यह भी मायने रखता है कि किसी की नज़र न पड़े।

आज मुझे तो ऐसा लग रहा था कि मेरे चारों ओर, मदर इंडिया का, "दुःख जिंदा दिन बीते रे भैया, अब सुख आयो रे, रँग जीवन में नया छा रेयो।" गीत बज रहा है। अच्छे दिनों के साथ-साथ, अब बसन्त भी महामहा उठा है।विश्वविद्यालय पाठ्यक्रम में लुगदी लेखन का होना, उन्हें भर्तृहरि की शताब्दी के समतुल्य स्थापित करता है। मेरा मन आज चौर्य भाव से पूर्णतया मुक्त है, और यह गठजोड़ पा रहा है कि, जल्दी ही किसी विश्वविद्यालय में मस्तराम पर भी खुल्लम खुल्ला करने जा रहे हैं। छुप छुप कर पढ़ना अब शुक्ल या द्विवेदी युग की बात हो गई।

अच्छा हो उस समिति का जिसने भी लुगदी लेखन को पाठ्यक्रम का अंग बनाया। वे भी बहुत अधिक ताड़ना (तुलसीदास वाला नहीं) सहकर, आज ऐसे पद पर पहुंचे हैं, जहां से वे सभी अड़ंगेबाजी को धता देखते हुए, सत्य को शास्त्री सांपरों की पिटारी से निकाल दिया। उन्होंने कितनी ही बीनाई की बजाय, कि यह पिटारी से बाहर न निकल पाए। लोकतन्त्र में लोकप्रियता का अपना दबदबा होता है। उसके फन को कोई अनदेखा नहीं कर सकता। ये बात दूसरी है कि पिटारी से ताजा-ताजा निकले इस फन का संस्करण, दन्तविहीन है या दन्तमय, यह समय यादगार। यह तो सिद्ध हो ही गया कि, लोकप्रिय सत्य को छिपाया या नहीं बताया जा सकता है। 

लुगदी लेखन आम जनमानस के जीवन का विश्वास अंग है, जो हर घर में लुप्तप्राय राज्य में निवास करता चला आ रहा है। बस बुद्धिजीविता के दुष्ट बजाज आदर्शों ने इसे पिटारी में सितारों, लुंगी से ढँक रखा था। भला हो नई शिक्षा नीति के विकास पर व्यापक प्रसार का  "साहित्य समाज का दर्पण होता है," यह कथन कितना सत्य है। 

भक्तिकाल, छायावादी युग, भारतेन्दु युग आदि उत्तरोत्तर विकास करते हुए, अब साहित्य के लुगदी युग के चरण पखार रहे हैं। यह चरणामृत अब जन-जन शिरोधार्य कर आचमन करेगा, बच्चों को भी डपटकर अपने सामने ही इससे आचमन करने को बोलेगा।

इस तरह बन्दर के हाथ में तलवार को भी सहज भाव से समाज में कंजेशन मिल जाएगा

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