रेवड़ियां जनकल्याण या राजनीतिक मजबूरियां

राजकुमार बरूआ  

  • ऋण कृत्वा घृतं पीबेत.
  • भस्मी भूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुत:”.

लोकतंत्र के लिए खतरा है मुफ्त बांटने की नीति

वर्तमान समय में सरकारों में एक होड़ सी चल पड़ी है रेवड़ियां बांटने की, जनता को मुफ्त की आदत डलवा कर सरकारे वाहवाही तो लूट लेती हैं पर इसके जो दुष्परिणाम भविष्य के लिए भयानक का रूप ले रहे है उसकी तरफ आंखें बंद करके बैठ जाती, जनता द्वारा चुनी हुई सरकार का अब तो यह हाल है कि वह अपने आप को राजतंत्र का एक हिस्सा समझने लगी है पुराने समय में राजाओं का राज था तो वह अपने आप को जनता को अपना गुलाम समझते थे और जनता पर किसी भी प्रकार का जुल्म करने से परहेज भी नहीं रखते थे, पर अब चुकी लोकतंत्र है इसमें राजाओं का राज भले ना रहा हो पर वर्तमान में अधिकतर राजनेता अपने आपको किसी चक्रवर्ती सम्राट से कम नहीं मानते हैं कुछ नेताओं का रहने का ढंग इस प्रकार का है ऐसा लगता है जैसे वह किसी राज्य के राजा हैं,अपनी सुरक्षा का इतना ख्याल रखते हैं के जनता से मिलने में भी उन्हें परेशानी होती है बेचारी जनता भी उनसे मिलने के लिए घंटों और कई बार तो दिनों महीनों तक इंतजार करती,पर चुनाव नजदीक आते ही नेताओं का अंदाज ऐसे बदल जाता है जैसे वहां इस धरती पर जनता का भला करने के लिए ही पैदा हुए हो,आजकल मुफ्तखोरी नेताओं का मुख्य चुनावी हथियार हो गया है, हर वस्तु मुफ्त में बांटने की एक होड़ सी लगी हैं,सभी राजनीतिक दल इसी चलन का हिस्सा बनती चली जा रही हैं इस चलन के कारण देश के खजाने पर जो असर पड़ता है उसकी तरफ ध्यान देना तो समझो बंद ही कर दिया गया है, सरकारें भी कर्ज लेकर लोगों को मुफ्त बांटने में अपने दोनों हाथ उठाए हुए हैं, 

मध्यप्रदेश में दो दशकों की सरकार होने के बाद भी सरकार कर्ज पर ही चल रही है चुनाव नजदीक आते-आते कर्ज लेने की तो एक बाढ़ सी आ गई है और इस बाढ में डुबती जनता ही है,महंगाई की मार जनता को रोज जहर के घुट पीने के लिए मजबूर कर देती है मध्यम वर्गीय परिवार के लिए तो एक तरफ कुआं एक तरफ खाई का हिसाब चल ही रहा है पर सरकारें गरीबों की तरफ इस तरह मेहरबानी दिखाती है कि मध्यमवर्गीय वर्ग तो अपने आप को ठगा सा ही महसूस कर रहाहैं, मध्यम वर्गीय परिवार के लोग अपनी कमाई पर टैक्स तो देते हैं और भी कई प्रकार के करो का भार वही उठाते हैं कारपोरेट में तो सरकार इतनी मेहरबान रहती है कि उनको बड़ी से बड़ी छूट देने में भी कभी इंकार नहीं करती और मध्यमवर्गीय से कुछ भी वसूल करने के लिए कठोरतम कार्रवाई करने से भी नहीं चुकती, आज मध्यमवर्गीय परिवार किस तरह जीवन-यापन कर रहा है इसकी कल्पना एक मध्यमवर्गीय परिवार का व्यक्ति ही कर सकता है जो सुबह से शाम तक अपने पैसे कैसे बचा सके इसके ही लिए प्रयत्न करता हुआ आपको हर जगह दिखाई दे जाता है, एक मध्यमवर्गीय व्यक्ति सब्जी में पांच रुपए भी बचा लेता है तो अपने आप को बड़ा भाग्यशाली समझता है,सरकारें भी इनके लिए कोई विशेष सुविधा ना देकर चुनाव वर्ष में एक लॉलीपॉप पकड़ा देती है की अगली बार आप लोगों के लिए विशेष बजट या उसी प्रकार का और प्रलोभन देकर अपना उल्लू सीधा कर लेती है,आंकड़े बताते हैं कि देश में छः प्रतिशत लोग ही आयकर दाता हैं या प्रत्यक्ष कर का भुगतान कर रहे हैं इसमें कारपोरेट टैक्स अलग है पर टैक्स हर नागरिक को ही देना पड़ता है और दें भी रहा है किसी भी सामान को खरीदते समय एक बड़ा सा हिस्सा सरकार को टैक्स के रूप में जाता है अनगिनत ऐसे टैक्स हैं जो आपसे वसूल तो लिए जाते हैं पर आप यह नहीं समझ पाते किस पर कर देना जरूरी है या नहीं,हर वस्तु जो सरकार से जुड़ी हुई है उस पर तो सरकार टैक्स लेती ही है और सरकारें भी विभिन्न प्रकार की व्यवस्था करके आपसे ज्यादा से ज्यादा टैक्स वसूल कर सके प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप में इस पर निरंतर काम करती रहती है यदि आप एक मोटरसाइकिल लेते हैं उस पर तो आप टैक्स देते ही हैं फिर उसी में रोड टैक्स बीमा और जितनी बार भी आप पेट्रोल डलवाते जाते हैं तो आप उतनी बार ही टैक्स देते हैं,सरकारों द्वारा एक ऐसी व्यवस्था बना दी गई है कि आप सोते-उठते हमेशा टैक्स ही देते रहते हैं,और सरकार फ्री की योजनाओं के माध्यम से प्रत्यक्ष कर देने वालों को ठगा सा महसूस कराती है अपनी कुछ ऐसी योजनाओं के द्वारा जिसका लाभ बहुत ही कम लोगों को मिलता है उनको मुफ्त में सुविधा देकर अपनी वाहवाही तो करवा लेती है पर टैक्स देने वाले को या सोचने के लिए मजबूर करती है कि उनके द्वारा दिया गया टैक्स का इस्तेमाल सही नहीं हो रहा है जो भविष्य में सरकारों के लिए एक बड़ी परेशानी खड़ी करेगा, सरकारें यह क्यों भूल जाती हैं सुविधाओं और मुफ्त की रेवड़ी में फर्क होता है हर राजनीतिक पार्टी मुफ्त बटकर अपने राजनीतिक लाभ के लिए जनता को बरगला कर अपना वोट बैंक बढ़ा रही है, मुफ्त की रेवड़ियां बांट कर वोट बटोरने की होड़ लगी है हर पार्टी के अंदर इस बात पर घोर चिंतन हो रहा है की जनता को क्या ज्यादा से ज्यादा मुफ्त में बांटे पर इन फ्री की रेवड़ियों से महंगाई के ऊपर कोई असर नहीं पड़ता महंगाई दिन पर दिन बढ़ती जा रही है लोगों के ऊपर टैक्स बढ़ाया जा रहा है उनको बरगलाकर दूसरे रास्तों से उनकी जेब से पैसा निकालने में सभी सरकारों ने महारत हासिल कर ली और जनता इस धोखे में रहती है कि वह कुछ तो फ्री में ले पा रही है इसमें जनता भी कम दोषी नहीं है वह भी अपने छोटे से लाभ के लिए देश के ऊपर बढ़ते हुए घाटे को नहीं समझ पा रही है या समझते हुए भी अपना लाभ देखते हुए आंखें बंद कर कर आटे में नमक के समान अपना लाभ ले रही है,जनता भी अपने छोटे से लाभ के लिए सरकारों के हाथ का खिलौना बनी हुई है चुनाव आयोग भी इन फ्री की घोषणाओं पर अंकुश लगाने में असमर्थ है वह भी हाथ पर हाथ धरे बैठा है और देश के ऊपर लदने वाले इस कर्जे को देखते हुए भी कुछ नहीं कर रहा है,दरअसल केंद्र और राज्य सरकार दोनों को समझना होगा कि लोकलुभावन वादों से जनता आलसी और कामचोर हो जाती है और उन्हें इन घोषणाओं से बचना चाहिए लोकतंत्र के लिए खतरा है मुफ्त बांटने की नीति. 

जनता को ज्यादा से ज्यादा रोजगार दे सकें ऐसी योजना बनाकर जनता को अभिमान के साथ अपना रोजगार करने का अवसर उपलब्ध कराना चाहिए लोगों के पास रोजगार रहेगा तो सरकारें भी सुचारू रूप से अपना प्रबंधन करके जनता को मूलभूत सुविधाएं जैसे चिकित्सा शिक्षा और बिजली पानी सड़क जैसी मूलभूत सुविधाओं के लिए अपने वचन का पालन कर सकती है सरकारों को भ्रष्टाचार पर सख्ती से अंकुश लगाने की जरूरत है.

अब समय है जनता और सरकार दोनों को इस फ्री बांटने की संस्कृति को छोड़कर रोजगार और विकास के ऊपर ध्यान देने का देश के निर्माण में दोनों ही मिलकर जब काम करेंगे तो हमारा भारत फिर से एक बार सोने की चिड़िया होगा, और पूरी दुनिया में विश्व गुरु बनकर स्थापित होगा।

टिप्पणियाँ