लिखूं मैं कैसे गीत कविता, टूट न जाये कलम की धार?

आल्हा-छंद

राम किशुन

लिखूं मैं कैसे गीत कविता, 

टूट न जाये कलम की धार।

घटित हो रहा जो कुछ भी अब, 

लगे नहीं अच्छे आसार।

नारी की है जैसी हालत, 

सिर्फ बहाऊँ अश्रुधार।

आज अगर कुछ कलम न लिख्खे, 

तो लेखक होना बेकार।


बारी बारी लूटेंगे सब, 

जिसकी बनेगी जब सरकार।

होता जाता रोज़ इजाफ़ा, 

बढ़ी गुनाहों की रफ़्तार।

छोड़ो दोषारोपण करना, 

कसो कमर अब हो तैयार।

फेंक के सारे पतवारों को, 

करो तैर कर नदिया पार।


जाति पाति औ भेद भाव की, 

ऊंची उठती ये दीवार।

हुआ ज़माना इतना डिजिटल, 

पर मन से हैं सब बीमार।

घुमा रहे औरत को नंगा,

अपना नहीं है क्या घर बार।

होगी  किसी की माँ बेटी वो, 

उठा नहीं क्या हृदय गुबार।


घर की इज्ज़त की अब इज्जत, 

लुटती गली गली  बाजार।

रेप खून की घटनाओं से,

रोज़ रोज़ रंगता अखबार।

अपनी रोटी सेंक रहे हैं, 

जाति धर्म के ठेकेदार।

तुम गाते अब भी दरबारी, 

आंखे खोलो जागो यार।


पुरुष नहीं वो पशु ही होगा, 

जो करता न इज्जत नार।

वध होगा हर महिषासुर का, 

बचोगे न तुम अबकी बार।

कोई कृष्ण नहीं आयेंगे, 

असुरों का करने संहार।

चल नारी तू जाग जरा उठ, 

ले  दुर्गा चंडी अवतार।


छोड़ो सजना और संवरना, 

छोड़ लगाना वंदनवार।

भूलो सावन हरी चूड़ियां, 

छीनो अब अपना अधिकार।

थाम हाथ अब एक दूजे का, 

रूप धरो ऐसा खूंखार।

अश्रु में भर लो अब ज्वाला, 

आंखों से टपके अंगार।


एक एक के मिलने से दो, 

दो दो के मिलने से चार।

इकजुट गर हो जाये नारी, 

बन जायेंगी लाख हज़ार।

हम ही सज़ा इन्हें दे ऐसी, 

कांपे इनके मन के तार।

गुस्ताख़ी करने से पहले, 

हर नर सोचे बारंबार।



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