जाने वो कैसी औरतें थीं!

हेमन्त कुशवाहा

जाने वो कैसी औरतें थीं  जो सुबह जल्दी उठकर घर की चक्की पर अनाज पीसती थीं और जो कुएँ से गगरी भरके सिर पर रखकर लाती थीं। 

जो गीली लकड़ियों को फूंक फूंक कर चूल्हा जलाती थीं और जो सिल पर हल्दी मिर्च मसाला पीसकर खाना बनाती थीं। 

जो रिश्तेदारों के लिए चारपाई पर दरी बिछातीं थीं और उनके लिए खुशी से चीनी का शरबत बनातीं थीं। 

जो गर्मियों के महीनों में पंखों को हाथों से झलती थीं और घर के काम करने के बाद बाहर बैठकर एक दूसरे का हाल लिया करती थीं। 

जो किसी पड़ोस के घर में रिश्तेदारों के लिए कम व सुविधा जनक जगह ना होने के कारण उनके रिश्तेदारों को अपने घर सम्मान से सुलाती थीं। 

जो तीज-त्योहारों पर एक दूसरे के हाथ बंटातीं थीं और तरह-तरह की त्योहार की चीजें बतौर चिप्स, पापड़, गुझिया, सिवईंयां मिलकर बनवाती थीं। 

जो हमेशा अपने सिर पर पल्ला रखती थीं और अपने क्या दूसरे बुजुर्गों के सामने तेज आवाज में बोलती नहीं थीं। 

जो अपने नन्हे बच्चों को नहाने के बाद उनकी आंखों में काजल लगाती थीं और किसी की नज़र लगने पर उसके सिर पर सूखी मिर्च उतार कर उसे चूल्हे में झोंकती थीं। 

जो अपने परिवार/खानदान की इज्जत के लिए मरती थीं और किसी चीज की कमी होने पर वो उसकी शिकायत अपने मां बाप से नहीं किया करती थीं जो अपने परिवार के जेठ देवरानी के बच्चों के लिए भी अपने बच्चों की तरहा एक समान निर्मल भावना रखती थीं जिनमें बनावट का कोई रंग होता नहीं था। 

अफसोस कि आजकल उनकी परछाइयों तक अकाल पड़ा हुआ है जो कहीं भी दूर दूर तक दिखाई नहीं देती हैं लगता है वो इस दुनियां को छोड़कर किसी दूसरी दुनियां में चली गई हैं।

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